“दिवाली” – ये शब्द कानो में गूंजते ही रंगबिरंगी आभा सब के मनोपटल पर छा जाती है। यह कल्पना अमीर -गरीब, बच्चे – बुढ्ढे – जवान के बीच अंतर नहीं देखती!
और यही खुशी आप उपर वाली फोटो में देख सकते हो! एस्टर पब्लीक स्कूल में केजी के बच्चोने सब के साथ दिवाली मनाइ! अपने पारंपरीक वस्त्रो में सज धज कर आये बच्चो को टिचरने रंगोली, दिए का महत्व बताया और दिवाली के त्योहार का उत्साह इन नन्हे मुन्ने बालको के मन मंदीर में जिवीत कीया!
(फोटो कर्टसी – एस्टर पब्लीक स्कुल, मयुर विहार, दिल्ही। साभार – दिव्या मेडम)
अभी तो दिवाली यानी ओनलाइन सेल से खचाखच भरा हुआ बाझार। (ओफलाईन बाजार में भले ही मंदी हो, ओनलाईन अरबो रूपये कमा लेता है!) अभी तो दिवाली यानी शोपींग मॉलमें लुत्फ उठाने का त्योहार!
दिवाली का मतलब छुट्टियां है तो घर पर ताला लगाने का मौका! (और तस्करशास्त्रीयों का भी!) हम घर पर हो तो मेहमान आएंगे न? कौन घर पर पकवान बनाएं, मिठाइयां बनाएं, गुजीया बनाएं, घर सजाएं?? छुट्टीयां मिली है तो घूम लेते है कहीं!
ऊपर वर्णित “दिवाली” सर्व व्यापक नहीं है, लेकिन धीरे–धीरे इसका विस्तार हो रहा है।
क्या मेरी बातें निराशाजनक लगती हैं? चलो कुछ अच्छी बातें करते है। आपको अतीत में डुबकी लगाने ले चलता हूं।
बात शरु करने से पहले बता दुं की गुजराती नव वर्ष दिवाली के दूसरे दीन से शुरु होता है। हम गुजरातीयों के लिए (सब की तरह) दिवाली बहुत मायने रखती है! अब आता हुं मुद्दे पर;
स्थलः ‘अनुपम वस्तु भंडार‘, गुंदावाडी, राजकोट, गुजरात। समयखंड: ई 1995-2005
वैसे तो पापा की यह दुकान सिर्फ बुक – स्टेशनरी की है पर पटाखे बेचने का स्थायी लाइसन्स होने पर हम पटाखे बेचते थे। दुकान मेइन मार्केट रोड से थोडी दूर अंदरवाली गली में है। पापा को आसपास में रहते सभी बच्चे “अनुपम” नाम से बुलाते थे क्युंकी उन्हें लगता था की दुकान का नाम मेरे पापा के नाम पर से ही होगा। आज वो बच्चे ३५-४० साल के आसपास होंगे। खैर दिवाली के पांच – छह दिन पहले हम पटाखो की बिक्री शरु कर देते थे। जैसा मैने पहले बताया की गुजरातीयों का नववर्ष होता है तो स्कुल में दिवाली की २० दिन की छुट्टी मिलती थी। मैं तब १२ – १३ साल का था और खुशी खुशी पटाखे बेचने दुकान पर जाता था। (लोहाणा के खुन में ही बिझनेस होता है!)
कई बच्चे दुकान के पास बहुत चक्कर लगाते और पटाखो के रंगीन पोस्टर देख अपनी कल्पना के रंग उसमें भरते। ये बच्चे हमारी बुक – स्टेशनरी के विश्वासु एवम रोजाना कस्टमर थे। (पेन्सील – इरेझर वाले!)
पटाखो के पेकेट मे से कई बार फुलजडी निकल पडती या अनार, जमीन चक्कर पर से रंगीन कागझ निकल जाते। उन पटाखों को पापा एक अलग बक्से में रख देते। मुजे याद है की एक बार एक छोटु पांच का सिक्का ले के दुकान पे आया। पांच का सिक्का मेरे पापा को देकर एक्दम खुशी खुशी तोतलाते हुए बोला, “ अनुपम, पांत ना फटाकीया” – मतलब पांच के पटाखे। और उस के बाद अपनी दोनो कोन्ही टेबल पर टीका उसपे अपना मुंह फिक्स कर सभी पटाखों को आराम से देख रहा था। पापा ने वो जो अलग बक्से में पटाखे रखे थे उसमे से कुछ् पटाखे निकाल उसको दिए। वो पटाखों की किंमत सन २००० के हिसाब से १५ – २० रुपये होगी। मैने फिर पापा की और देखा। वो बोले उसके पापा बगल वाली साबुन की फेकट्री में मझदूर है। इस छोटु को भी तो दिवाली मनानी होगी ना? हां पैसे इस लिए मैने लिये ताकी उसे ये विश्वास रहे की पटाखे मुफ्त में नहीं मिलते। पापा दुकान पे आते भिखारी को भी ऐसे ही उस बक्से में से कुछ दे देते थे। भिखारी के बच्चों की मुस्कान देखने लायक बनती। यहां पर मैं अपने पापा की वाहवाही नहीं कर रहा और ना ही भिखारीओ को उत्तेजन देने की बात कर रहा हूं। मैं बस इतना कहना चाहता हूं की हम कुछ ऐसा कर पाए की और लोग भी हमारे साथ त्योहार मना पाए।
आज अगर सो रुपये लेकर बाझार में जाकर पटाखे मांगो तो व्यापारी हस देगा। पर तब ऐसा नहीं था। उस समय हम बीस – तीस रुपये के पटाखे भी बोक्स में से निकाल कर दे देते थे। मुख्य उद्देश्य व्यापार करने के साथ मस्ती भुनने का भी था। और ये सीर्फ हम नहीं सभी व्यापारी ऐसा करते थे।
उस समय सब को अपने बजट के अनुसार त्योहार मनाना आता था। उस समय औरते पुराने कपडों के बदले नये बर्तन ख्ररीदती थी। इस ‘एक्स्चेंज’ ओफर का अपने पडोशीयों के साथ ‘ग्रुप डिस्कशन’ करती थी। सडकों के किनारे बैठे हुए रंगोली , दीए वाले के पास से खरीददारी होती थी। लाइटों की चमचमाती रोशनी देखने लोग बाझारों में घूमने निकलते थे। रेडी एवम दुकानो से जूते , चप्पल, कपडें, साज सजावट के सामान खरीदे जाते। दिवाले के दिन अशोक व्रुक्ष (आसोपालव) के पत्ते से बने तोरण (लडी) की खरीददारी होती है। दुसरे दीन नववर्ष पे सब बच्चे तैयार हो कर आस पडोश और सगे – संबंधीओ के घर पर जा के पैर छूते हैं और उनसे आशीर्वाद (लक्ष्मीजी भी! ) पाते। घर के सभी सदस्य मंदीर जा कर फीर एक दूसरे को बधाई देने पहुंचते।
पहले मिट्टी के दिए बेचती बुढ्ढी अम्मा से लेकर सबरस (नमक) बेचते हुए चाचा तक सब दिवाली मनाते थे। उस समय लारी – रेडी में से खरीदने में कोई असहज महसूस नहीं करता था। छोटी छोटी चिजो में कोई क्वालीटी का सवाल भी नहीं होता था।
मगर आज हम क्या कर रहे है? हम किसी के त्योहार की खुशीया छीन तो नहीं रहे ना? ओनलाइन शोपींग और मॉल के चक्कर में कइ लोगों के दिये नहीं जल पाते।
चलो इस दिवाली पे हम औरो की खुशी में भी शामिल होते है। इस दिवाली सब को साथ लेकर चलते है। बच्चे – बुढ्ढे कीसी के दिल को चोट ना लगे ये संकल्प लेते है।
आप सब को दिवाली की हार्दिक शुभकामनाऍ। सुरक्षीत रहें , स्वस्थ रहें!
– गोपाल खेताणी
Very beautiful article and rightly said that true meaning of Diwali is getting lost.
We all r missing those days.
Thanks for bring those days through your article.
thank you so much for ur valuable comment.
बहुत सुंदर व्याख्या है दीपावली के बारे में। दीपों का ये त्योहार आपके जीवन में ढेर सारी खुशियां लाये। दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।
bahut bahut shukriya
Wah Gopal…bav sachi vaat.. tari tari jem loko blog no pan positive use kate evi iccha..
Uday,