श्री कृष्ण: जनमानस के प्रेरक और भारत की सभ्यता- संस्कृति के आधार – Shree Krishna – Jagadguru

जय श्री कृष्ण

आज जन्माष्टमी है  भगवान कृष्ण का जन्मदिन । श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध के पूर्वार्ध(अध्याय 3-श्लोक 8)में भगवान कृष्ण के जन्म का वर्णन है-

  निशीथे तम उद्‍भूते जायमाने जनार्दने ।

  देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः

  आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशि इन्दुरिव पुष्कलः।(8)।

अर्थात जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले जनार्दन के अवतार का समय था निशीथ।चारों ओर अंधकार का साम्राज्य था ।उसी समय सबके हृदय में विराजमान भगवान विष्णु, देवरूपिणी देवकी के गर्भ से प्रकट हुए, जैसे पूर्व दिशा में सोलहों कलाओं से पूर्ण चंद्रमा का उदय हो गया हो।

भगवान कृष्ण परं ब्रह्म हैं। भगवान विष्णु के अवतार हैं। द्वापर युग में भगवान कृष्ण के जन्म के वर्ष के संबंध में अनेक मत हैं।तत्कालीन ग्रहों और नक्षत्रों की गणना के आधार पर प्रख्यात ज्योतिषी श्री वी. वी. रमन के मत के अनुसार भगवान कृष्ण का जन्म  3228 ईसा पूर्व है अर्थात वर्तमान वर्ष 2021 जोड़ने पर उनके अनुसार भगवान कृष्ण आज से 5249 वर्ष पूर्व जन्मे थे। भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि व रोहिणी नक्षत्र में जन्मे श्री कृष्ण अद्भुत हैं। भगवान कृष्ण का व्यक्तित्व अद्वितीय है।मानवता के लिए अत्यधिक प्रेरक,सम्मानित और पूज्य व्यक्तित्व होने के बाद भी उनका जीवन उतार-चढ़ावों और कठिनाइयों से परिपूर्ण रहा।

        जन्म मथुरा के कारागार में हुआ।उन्हें जन्म लेते ही अपनी माता देवकी और पिता वसुदेव से तुरंत अलग हो जाना पड़ा। भादो की बरसती काली अंधेरी रात में पिता वासुदेव ने उन्हें गोकुल गांव में  जाकर छोड़ा ।इसी से सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि उनका भावी जीवन कितनी कठिनाइयों से भरा रहने वाला था| कृष्ण के व्यक्तित्व के कई पहलू हैं|एक ओर वे  माखन चोर हैं, नटखट  बंसी बजैया कृष्ण कन्हैया हैं, तो दूसरी ओर कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरवों और पांडवों की विशाल सेना के सामने, अपने प्रिय मित्र अर्जुन को गीता का उपदेश देने वाले  महानतम  दार्शनिक कृष्ण हैं| जब वे गीता में उद्घोषणा करते हैं ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ तो कृष्ण केवल एक उपदेशक ही नहीं होते, अपितु अपने पूरे जीवन में इस उक्ति को चरितार्थ करने वाले और अपने अनुभव से ऐसा कह सकने वाले कृष्ण होते हैं| किंकर्तव्यविमूढ़ और भ्रम के शिकार अर्जुन को उन्होंने जिस तरह कर्म के लिए प्रेरित किया,उसकी विश्व इतिहास में मिसाल मिलना मुश्किल है:-

 ‘क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।

   क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप’। गीता( 2/3)।

अर्थात हे पृथानन्दन अर्जुन, इस नपुंसकताको मत प्राप्त हो क्योंकि तुममें यह उचित नहीं है। हे परंतप, हृदयकी इस तुच्छ दुर्बलताका त्याग करके युद्धके लिये खड़े हो जाओ।

       कंस के वध के बाद वह सहज ही राजा बन सकते थे, लेकिन उन्होंने कंस के पिता उग्रसेन को यदुवंशियों का राजा बना दिया-

      एवमाश्वास्य पितरौ भगवान देवकीसुतः।

      मातमहं तूग्रसेनं यदूनामकरोंनृपम।।( श्रीमद्भागवत दशम स्कंध पूर्वार्ध अध्याय 45-श्लोक12)

 उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि  लोक कल्याण और जनता की सेवा के लिए, एक आदर्श प्रस्तुत करने के लिए  सत्ता के शीर्ष पर पहुंचना या कोई बड़ा पद पा लेना या  जीवन में तथाकथित सफल हो जाना आवश्यक नहीं है | जो व्यक्ति जहां है, जैसा है, जिस रूप में है , वह अपने राष्ट्र और समाज की सेवा कर सकता है| 

    मगध के शक्तिशाली सम्राट जरासंध के हमलों के बाद उन्होंने द्वारका जाने और वहां नई राजधानी बनाने का निर्णय लिया। इस घटना के कारण  कृष्ण को रणछोड़ भी कहा जाता है, लेकिन इस  निर्णय में कितनी समझदारी थी यह आगे चलकर ही स्पष्ट हो पाया| युद्ध भूमि से यह उनका पलायन नहीं था बल्कि उनकी एक चतुर रणनीति थी,कि कभी -कभी जीवन में युद्ध न करना; युद्ध करने से अधिक लाभदायक होता है। जीवन में कभी-कभी निरर्थक और असंभव चीजों को उपेक्षित करना ही होता है|

     वहीं मथुरा की रणभूमि से दूर कुरुक्षेत्र में जब शांति के सारे प्रयास असफल हो जाते हैं, कृष्ण, कुरुक्षेत्र के मैदान में पांडवों की ओर से निहत्थे ही युद्ध में शामिल होते हैं। यहां कृष्ण संदेश देते हैं कि अत्याचारी तथा  अन्याय के पक्षधरों को अनेक समझाइश देने के बाद भी सही रास्ते पर नहीं लाया जा सकता है, तब आत्म सम्मान की रक्षा के लिए और सत्य की जीत के लिए युद्ध अपरिहार्य हो जाता है। जीवन में सहनशक्ति एक हद तक ही स्वीकार्य है| शिशुपाल वध के प्रसंग में भी कृष्ण ने यह समझाया| जब महाभारत युद्ध में पितामह भीष्म,कृष्ण द्वारा ली गई प्रतिज्ञा तोड़ने के लिए और उन्हें रथ का पहिया उठाने को विवश कर देते हैं तो इससे हमें उनके जीवन का यह महत्वपूर्ण संदेश मिलता  है कि प्रतिज्ञाएं; वर्जनाएं;  मर्यादाएं ,अपनी जगह ठीक हो सकती हैं,लेकिन इस आधार पर कोई व्यक्ति या संस्था  किसी दूसरे की व्यक्तिगत स्वतंत्रता,निजता और सम्मान को बाधित  सीमित और क्षतिग्रस्त नहीं कर सकता है| अर्थात जीवन में कुछ भी नियत और अंतिम नहीं है।

                 उस मानसिक,भावनात्मक पीड़ा और दुख का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है; जब कृष्ण और बलराम ने गोकुल गाँव छोड़ा  होगा| अपने नंद बाबा, यशोदा मैया और अपनी सहचरी राधा जी और अनेक ग्वालबालों को छोड़कर जब वे हमेशा के लिए जा रहे थे, तो क्या वे उद्विग्न नहीं हुए होंगे? क्या भावनाओं के सागर में नहीं डूबे-उतरे होंगे? लेकिन कृष्ण ने प्रेम और भावनाओं का सबसे बड़ा प्रतीक होते हुए भी अपने जीवन में कभी प्रेम और भावनाओं को अपने कर्तव्य पर हावी नहीं होने दिया| आत्मा में स्मरण रखते हुए भी उन्होंने वृंदावन और मथुरा का मोह कभी नहीं पाला,यहाँ तक कि स्वयं की बसाई  द्वारका का भी नहीं| भगवान कृष्ण की मृत्यु के कुछ ही दिनों के भीतर वह विशाल महिमामयी द्वारका नगरी समुद्र में समा गई।कृष्ण,व्यक्तिगत हित और भावनाओं से ऊपर जनकल्याण की भावनाओं और जनहित को महत्व देते हैं।

     यहाँ मैं अपनी मौलिक कविता ‘हे जगन्नाथ’ की पंक्तियों को उद्धृत करना चाहूंगा:-

हे राधेकृष्ण,

गोकुल से मथुरा

जाते-जाते राधे से कहा

” हे राधिके,

मैं दूर भले जा रहा तुमसे

लेकिन हूं तुममें, तुम्हारे पास, तुम्हारे साथ ही

तुम केंद्र प्रेम का और

यह पृथ्वी है

तुम्हारे ही प्रेम की परिधि

का विस्तार,

कि प्रेम के इस क्षेत्रफल के

किसी भी हिस्से में

मैं बस तुम्हारा ही रहूंगा राधिके

और हर क्षण महसूस करता रहूंगा तुम्हें ही,

भले ही लौट ना पाऊं कभी

इस परिधि के केंद्र में दोबारा कभी,तब भी;

क्योंकि लौटने से हो न जाए,

तुम्हारे मेरे प्रेम का विस्तार

सिमटकर एक बिंदु तक सीमित

और शून्य कहीं,

इसलिए हम दोनों

एक दूसरे के लिए

प्रेम के केंद्र भी हैं और विस्तार भी।”

        कृष्ण, एक साधारण स्त्री कुब्जा से भी सहज भाव से मिलते हैं| वह दुर्योधन के महलों का आमंत्रण अस्वीकार कर विदुर की कुटिया में ठहरते हैं| नंद बाबा जो गांव के प्रमुख थे,उनका पुत्र होते हुए भी साधारण ग्वाल बालों के साथ गाय चराने के लिए वन को जाते हैं| इतनी सहजता, इतनी सरलता, बहुत कम लोगों में संभव हो पाती है|दुर्वासा ऋषि के संभावित श्राप का सामना करने वाली द्रोपदी के अक्षय पात्र में  लगा हुआ भोजन का एक कण पाकर भी वे तृप्त  हो जाते हैं| कृष्ण यहां बताते हैं कि कोई व्यक्ति विशेष नहीं है।सारे अहंकार छोड़कर मनुष्य को लोगों से   घुल- मिलकर रहना  चाहिए | मनुष्य केवल एकाकी नहीं रह सकता है, उसकी  सामाजिकता  है | मानव जीवन केवल स्वार्थ के लिए नहीं है,मनुष्य, मनुष्य है |वह किसी दूसरे मनुष्य से श्रेष्ठ नहीं है|ऐसे में किसी भी आधार पर मनुष्य-मनुष्य में भेद नहीं होना चाहिए।

     कॄष्ण हमेशा मुस्कुराते रहना सिखाते हैं।अंतर्मन में  हमेशा प्रसन्नचित बने रहना सिखाते हैं| जीवन की कठिनतम परिस्थितियों  में भी |जीवन समर का ऐसा महायोद्धा शायद तब भी उतना ही संतुलित और स्थितप्रज्ञ रहा होगा,जब उनकी आंखों के सामने उनके ही महान यादववंश के अंतःसंघर्ष के दौरान उनके प्रिय पुत्र प्रद्युम्न की मृत्यु हो जाती है|इतना ही नहीं,तब भी उनके मुखमंडल व ओठों में  मुस्कुराहट रही होगी, जब बहेलिए के घातक बाण ने उनके तलुवे का स्पर्श किया| सचमुच, कृष्ण जीवन को आनंदित बनाना, उसे आनंद से जीना सिखाते है।हमेशा,हर परिस्थिति में|

आप सभी को आज श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं। जय श्री राधे कृष्ण!

डॉ.योगेंद्र कुमार पांडेय, राजनांदगांव छत्तीसगढ़।

परिचय :- देश के महत्वपूर्ण हिंदी लेखकों और कवियों में से एक।गद्य और पद्य दोनों विधा में लेखन।एक शिक्षक और स्वतंत्र पत्रकारिता का कार्य करने के साथ-साथ सतत साहित्य लेखन। समाचार पत्र दैनिक दावा में दैनिक विचार सरिता स्तंभ के प्रसिद्ध लेखक।

 कार्यस्थल:-1.पूर्व में दैनिक देशबंधु एवं समवेत शिखर समाचार पत्र रायपुर के संपादकीय विभाग में कार्यरत।

            2.पूर्व में आकाशवाणी के रायपुर केंद्र में युववाणी कार्यक्रम के लिए नैमित्तिक कम्पीयर के रूप में कार्यरत।

            3.संप्रति, केंद्रीय विद्यालय संगठन में स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी के पद पर कार्यरत|वर्तमान में केंद्रीय विद्यालय   राजनांदगांव में कार्यरत।

सृजन कर्म:-1.लघु उपन्यास ‘बंधन प्रेम के’ वर्ष 2022(पेपरबैक और डिजिटल दोनों फॉर्मेट में)

2.लघु उपन्यास ‘यशस्विनी'(डिजिटल फॉर्मेट में)

3. काव्य संग्रह ओस की झरती बूंदें शीघ्र प्रकाशनाधीन

4.अभी तक दैनिक दावा, दैनिक भास्कर,देशबंधु,नवभारत,समवेत शिखर,सबेरा संकेत,आदि प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में 782 कहानियां,कविताएं,नाटक,एकांकी और आलेख।

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  • गोपाल खेताणी

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